प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वरूप

प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वरूप
स्वशासन के लिए बनी किसी भी संस्था की सफलता के लिए पहली शर्त तो यही है कि उसमें सत्ता सीधे लोगों के हाथ में होनी चाहिए न कि चुने हुए कुछ लोगों के हाथ में।
सवाल यह उठता है कि क्या आम लोगों की सभा में फैसले लिए जा सकते है ? जी हां! बिल्कुल लिए जा सकते हैं। बशर्ते कि इस तरह की बैठकें कराने के लिए कानून ठीक तरह से बनाए जाएं। स्विटज़रलैंड, ब्राज़ील और अमेरिका में आज स्थानीय लोग अपनी स्थानीय स्तर की व्यवस्था इसी तरह चलाते हैं। यहां तक कि प्राचीन भारत में इसी तरह की व्यवस्था रहती थी।

प्राचीन भारत में ग्राम सभाएं
भारत में लंबे समय से विचार विमर्श के आधार पर लोकतंत्र को चलाने की परंपरा रही है, जिसमें समान हित वाले लोगों के समूह आपस में बातचीत, सलाह और मतदान के जरिए अपने मामलों में निर्णय लेते थे। बुद्ध के समय में भी, हालांकि उस वक्त राजा के लिए चुनाव नहीं होते थे और राजा का बेटा ही राजा बनता था, शासन से जुड़े रोजमर्रा के निर्णय ग्राम सभाओं में ही होते थे। राजा ग्राम सभा के निर्णय का सम्मान करता था।
सिद्धार्थ गौतम (जो बाद में बुद्ध बने) शाक्यों के राज्य कपिलवस्तु के राजकुमार थे। शासन का मुखिया राजा ही होता था लेकिन `संघ´ नाम की एक लोकतांत्रिक संस्था के जरिए ही राज्य के मामलों पर निर्णय लिया जाता था। 20 साल से ऊपर के प्रत्येक शाक्य युवक संघ में भागीदारी करते थे। सिद्धार्थ भी इस उम्र में आने के बाद संघ की कार्यवाही में हिस्सा लेने लगे थे। जब सिद्धार्थ 28 साल के थे तभी शाक्य और पड़ोसी राज्य कोलिया के बीच रोहिणी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर संघर्ष शुरू हो गया। यह नदी दोनों राज्यों की सीमा निर्धरित करती थी। कोलिया पर आक्रमण करने से पहले शाक्य सेनापति ने संघ की बैठक बुलाई। जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, सिद्धार्थ ने युद्ध का विरोध् किया और विवाद का शांतिपूर्ण तरीके से हल निकालने का प्रस्ताव दिया। लेकिन संघ के अन्य सदस्यों ने न सिर्फ इसका विरोध् किया बल्कि मतदान के जरिए युद्ध का समर्थन भी किया।
इतना ही नहीं इसके बाद संघ ने लोकतांत्रिक शक्ति का परिचय देते हुए कदम उठाए। समर्थन मिलने के बाद सेनापति ने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी कि 20 से 50 साल के सभी शाक्स, कोलिया के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार हो जाए। सिद्धार्थ ने ऐसा करने से मना कर दिया। सिद्धार्थ का यह निर्णय, संघ में प्रवेश के समय लिए जाने वाले शपथ के विरुद्ध था। अत:, संघ सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेवारी से मुकरने के कारण सिद्धार्थ को कपिलवस्तु छोड़ने की सजा दी गई।

युद्ध के बारे में संघ के निर्णय को लेकर असहमति जताई जा सकती है लेकिन कपिलवस्तु में लोकतंत्र की सचाई को भी स्वीकार करना होगा। लोगों की सामूहिक ताकत के आगे एक राजकुमार की बातों का कोई महत्व नहीं था।

बुद्ध साहित्य में से सबसे पुरानी महा-परिनिर्वाण-सुतांता के अनुसार बुद्ध प्रजातांत्रिक मूल्यों को ले कर प्रतिबन्ध थे। इस संबंध् में एक कहानी भी है। मगध् का राजा अजातशत्रु लिच्छवी गणराज्य को जीतना चाहता था। उसने अपने मंत्री वसाकारा को भेज कर बुद्ध की राय जानने और यह पूछने को कहा कि क्या वो अपने मकसद में सफल हो सकता है। बुद्ध ने मंत्री को सीधे कुछ न कहते हुए अपने शिष्य आनंद से कहा,

`आनंद , क्या तुमने सुना है कि लिच्छवी गणराज्य में पूर्ण और निरंतर आम सभा की बैठक होती है?´
आनंद ने कहा, `हां भगवान, , मैने ऐसा ही सुना है।´
तब बुद्ध ने कहा कि लिच्छवी में जब तक आम सभाएं और इसकी बैठक जारी रहेंगी, इस राज्य में सिर्फ समृद्धि ही आएगी, कभी इसका पतन नहीं होगा।

एक स चे और समृद्धि समुदाय के लिए, बुद्ध आम सभा का होना आवश्यक मानते थे, चाहे वो धर्मनिरपेक्ष हो या धर्मिक। इस सब में बुद्ध न्याय और धर्म के प्रति अपने व्यक्तिगत विचारों की बात नहीं करते। इसका आधार प्राचीन भारत की वह लोकतांत्रिक परंपरा है जिसमें बड़े पैमाने पर राजनीतिक अधिकार के बंटवारे की बात है। साथ ही जिस परंपरा में नियंत्रण और जोर-जबरदस्ती के बजाए बातचीत के माध्यम से शासन चलाने की संकल्पना है।

भारतीय इतिहास में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र की मजबूती का एक और तथा पुख्ता उदाहरण कांचीपुरम जिले में स्थित उत्तीरामेरुर के सुंदरवरदा मंदिर की दीवारों पर दर्ज है। इस मंदिर की दीवार पर सातवी शताब्दी के मध्य में प्रचलित ग्राम सभा व्यवस्था का सविधान लिखा है, इसमें चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक योग्यता, चुनाव की विधि, चयनित उम्मीदवारों के कार्यकाल, उम्मीदवारों के अयोग्य ठहराए जाने की परिस्थितियां और लोगों के उन अधिकारियों की भी चर्चा है जिसके तहत लोग अपने जन प्रतिनिधि वापस बुला सकते थे। यदि ये जन प्रतिनिधि अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन ठीक से नहीं करते थे।

ग्राम सभाओं के पास न्यायिक और कार्यकारी शक्तियां थी। ग्राम सभा अपराधियों और निकम्में जन प्रतिनिधियों जुर्माना लगाने और वसूलने के लिए अधिकृत थीं। चुने गए जन प्रतिनिधियों पर ग्राम सभा की नजर रहती थी, जिसमें गांव के अधिसंख्य लोग और स्वयं जन प्रतिनिधि भी शामिल रहते थे।

उपलब्ध् रिकॉर्ड के मुताबिक गांव वाले खुद जन सेवाओं से जुड़े नियम और कानून पास करते थे। जैसे-सोने की गुणवत्ता की जांच, उच्च शिक्षण संस्थान, गांवों के तालाब का रख-रखाव इत्यादि। प्रत्येक जन सेवा को विभिन्न समुदायों के लोगों से बनी समितियों के हवाले कर दिया जाता था। इसमे लोगों की विशेषज्ञता और समिति के लोगों के साथ भेद-भाव न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था।

लोकतांत्रिक सभ्यता का सबसे पुराना उदाहरण ऋग्वेद काल यानि प्राचीन भारत में भी मिलता है। वैदिक काल में गांव, प्रशासन की आधार इकाई थी। राज्य में भले ही राजशाही थी। लेकिन उस वक्त भी सभा और समिति नाम की दो लोकतांत्रिक संस्थाएं थीं। सभा आदिवासियों की चुनी हुई संस्था थी जबकि समिति में सभी आदिवासी लोग शामिल होते थे, जो किसी विशेष अवसर पर इकट्ठे होते थे। सभा और समिति राजा की शक्तियों पर नियंत्रण रखने का काम करती थी। ऋग्वेद में भी सभा और समिति को हिंदु देवता प्रजापति की बेटियों के रुप में दर्जा प्राप्त था।
रामायण में भी राम के राज्याभिषेक के लिए राजा दशरथ और एक समिति के बीच चर्चा का उल्लेख है। इसके बाद प्राचीन भारत में कई सारे गणतंत्र हुए जिनमें कुछ तो ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भी पहले और कुछ बुद्ध के जन्म से भी पहले के थे। ये गणराज्य महा जनपद के नाम से जाने जाते थे। इनमें वैशाली को (वर्तमान में भारत का एक राज्य, बिहारद्) विश्व का पहला गणतंत्र होने का गौरव प्राप्त है।

भारत में इस्ट इंडिया कंपनी के आने से पहले हिंदु, मुस्लिम और पेशवा शासन के जमाने तक ग्रामीण गणराज्य फल-फूल रहे थे। राजवंशों के विघटन और साम्राज्यों के उतार-चढ़ाव का कभी इन पर फर्क नहीं पड़ा। स्थानीय शासन के स्वतंत्र विकास से गांवों को एक ऐसा कवच मिला था जहां राष्ट्रीय संस्कृति जब-तब उठने वाले राजनीतिक बवंडर से खुद अपनी रक्षा कर सकती थी। राजा गांवों से केवल राजस्व प्राप्त करता था और आमतौर पर स्थानीय शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। इस पर सर चाल्र्स ट्रेवेलिन की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है, `एक के बाद एक विदेशी आक्रांताओं ने भारत पर आक्रमण किए लेकिन गांव की स्वशासन व्यवस्था अपने जमीन से इस तरह चिपकी रही जैसे मिट्टी से घास।´ 1830 में भारत के तत्कालीन कार्यवाहक गवर्नर जनरल सर चाल्र्स मेटकॉफ ने लिखा,
`ग्रामीण समुदाय गणतांत्रिक हैं और उनके पास वो सब कुछ है जिसकी उन्हें जरुरत है और ये गांव किसी भी विदेशी संबंध् से मुक्त हैं। कई राजे-महाराजे आए और गए, क्रांतियां होती रहीं लेकिन ग्रामीण समुदाय इस सब से अछूता रहा। ग्रामीण समुदायों की शक्तियां इतनी थी मानो सब के सब अपने आप में एक अलग राज्य हों, मेरे विचार से तमाम आक्रमणों और बदलाव, जो यहां के लोगों ने सहे हैं, के बीच भी भारतीय लोगों के बच पाने का मुख्य कारण भी यहीं रहा। जिस तरह की आज़ादी और स्वतंत्रता में यहां के लोग प्रसन्नता से जी रहे हैं, उसमें प्रमुख योगदान इस (व्यवस्था) का ही है। मेरी इच्छा है कि गांवों के इस सविधान को कभी छेड़ा न जाए और हर वह खतरा जो इस (व्यवस्था) को तोड़ने की दिशा में ले जाता हो, उससे सविधान रहा जाए।´


लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। ईस्ट इंडिया कंपनी की दुर्भावना और लालच ने धीरे धीरे इन गावों को तोड़ दिया। ब्रिटिश नौकरशाहों के हाथ में सारी कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों के चले जाने के कारण गांव अपने सदियों पुराने अधिकार और प्रभाव से वंचित हो गए।

डॉक्टर एनी बेसेंट के मुताबिक, अधिकारियों ने नाम तो पुराने ही रखे लेकिन पुरानी पंचायत गांव वाले खुद ही चुनते थे और ये गांव वालों के प्रति जवाबदेह होती थीं। अब अधिकारी अपने से बड़े अधिकारियों के प्रति जवाबदेह हो गए हैं, उनका हित अपने साहब को खुश रखने में समाहित है। उन्हें जनता की कोई फ़िक्र नहीं है।

दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के बाद भी हम उसी व्यवस्था को बनाए हुए हैं जिसे अंगे्रजों ने लागू किया था।



देश और समाज की समस्याओं के प्रति कितनी गंभीर है हमारी शिक्षा व्यवस्था?

देश भले ही भ्रष्टाचार और आतंकवाद की विकराल समस्याओं से जूझ रहा हो लेकिन देश
की शिक्षा व्यवस्था यह ज़रूरी नहीं मानती कि आने वाली पीढ़ियों को इन
दोनों समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाने में उसकी भी कोई भूमिका है।
सूचना के अधिकार के तहत दाखिल आवेदनों के जवाब में शिक्षा व्यवस्था का
भावी समाज के प्रति यह गैर ज़िम्मेदाराना रुख सामने आया है।
भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्रालय देश के लोगों के शिक्षित होने की दिशा और
दशा तय करने का दावा करता है। करीब छह महीने पहले इस मंत्रालय से सूचना के
अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई थी कि इन दोनों समस्याओं के प्रति लोगों
को संवेदनशील बनाने के लिए और आतंकवाद तथा भ्रष्टाचार के खिलापफ जनमानस
तैयार करने के मकसद से देश की शिक्षण संस्थाओं में विभिन्न स्तर पर
पाठयक्रमों में क्या कुछ पाठ जोड़े गए हैं। मंत्रालय ने इन आवेदनों को
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधन एवं
प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) को अग्रसित कर दिया। यूजीसी ने तो एक लाइन
में लिखकर दे दिया कि उच्च शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में उसकी कोई
भूमिका नहीं है।
दूसरी तरफ एनसीईआरटी ने दोनों आवेदनों के जवाब में
बताया है कि उसके पाठ्यक्रम में भ्रष्टाचार या आतंकवाद के बारे में कोई
विशेष पाठ नहीं है। गौरतलब है कि एनसीईआरटी का नया पाठ्यक्रम 2005 में ही
लागू हुआ है। इस नए पाठ्यक्रम में देश की दो सबसे बड़ी समस्याओं के प्रति
आने वाली पीढ़ियों को संवेदनशील बनाने का कितना ध्यान रखा गया है यह खुद
एनसीईआरटी के जवाब से देखा जा सकता है -

आतंकवाद
6 अक्टूबर 2008 को दाखिल सूचना अधिकार आवेदन का जवाब अपील/शिकायत आदि दाखिल करने और सूचना
आयोग का कड़ा नोटिस मिलने के बाद दिए गए जवाब में एनसीईआरटी ने लिखा है कि
2005 के पाठ्यक्रम के आधर पर तैयार पाठ्यपुस्तकों में आतंकवाद पर कोई
विशेष पाठ हमारी पुस्तकों में नहीं है। हालांकि इनमें भारत की अखंडता और
विश्व शांति पर मंडराते खतरे के रूप में आतंकवाद को रेखांकित किया गया है।
राजनीतिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर विजुअल एलीमेंट्स के माध्यम से आतंकवाद की चर्चा की गई है।´
एनसीईआरटी का यह दावा सकून देने वाला हो सकता था लेकिन सूचना के अधिकार के इस आवेदन
का जवाब देते हुए पाठ्यपुस्तकों के उन हिस्सों की पफोटोकॉपी प्रदान की गई
हैं जिन पाठों के आधर पर एनसीईआरटी ने उपरोक्त दावा किया है। एक नज़र जवाब
के उस हिस्से पर भी:-
• भारत की अखंड्ता को बनाए रखने और आने वाली
पीढ़ियों को आतंकवाद के प्रति संजीदा करने की कोशिश में पढ़ाए जा रहे पाठों
में एनसीईआरटी ने पहला पाठ कक्षा 11 की पुस्तक का उपलब्ध् कराया है। यह
पाठ (पृष्ठ संख्या ११६) संसद में कानून पास होने की प्रक्रिया के बारे में
है और बताता है कि किस तरह कुछ कानून यथा लोक पाल बिल अभी अध्र में लटका
है, 2002 में आतंकवाद रोधी कानून 2002 राज्य सभा में खारिज हो गया था।
यहां पर आतंकवाद शब्द को एनसीईआरटी ने पीले मार्कर पेन से रेखांकित कर
दिया है।
• इसके अगले पृष्ठ में संचार माध्यमों के लाभ हानि पर बात
करते हुए लिखा गया है कि एक तरपफ सामाजिक कार्यकर्ता आदिवासी संस्कृति और
जंगल जैसे मुद्दों पर दुनिया भर से संपर्क करने में इनका लाभ ले रहे हैं
वही अपराधी और आतंकवादी भी इससे अपना नेटवर्क फैलाते हैं। (यह पृष्ठ
आतंकवाद के बारे में नहीं बल्कि इंटरनेट के फायदे नुकसान के बारे में है)
अगले पन्ने में अधिकारियों की बात करते हुए ज़िक्र आता है कि क्या आतंकवाद
से पीड़ित एक देश को किसी दूसरे देश के नागरिक अधिकारियों का हनन करना
चाहिए? यहां भी आतंकवाद शब्द आया है, शायद इसीलिए इस पृष्ठ की फोटोकापी
सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध् कराई गई है।
इसके आगे के पन्ने में भी इंटरनेट के उपयोग पर चर्चा है जिसमें लिखा है कि
इंटरनेट के विभिन्न पहलू हैं जिसमें एक तरपफ संयुक्त राष्ट्र जैसी
संस्थाएं इसका इस्तेमाल बर्ड फ्रलू जैसी बीमारियों के प्रति जागरूकता
पफैलाने के लिए करती हैं वहीं आतंकवादी इसका इस्तेमाल अपना नेटवर्क बढ़ाने
में करते हैं।
• इसके बाद शांति (पीस) पर एक पाठ है जिसकी पहली ही
लाइन में आतंकवाद शब्द आया है इसलिए एनसीईआरटी ने अपने दावे में इसे भी
शामिल कर लिया है। इस पाठ में दुनिया भर में अशांति के माहौल पर चर्चा हुई
है जैसे कि रवांडा के हालात भारत और पाकिस्तान के हालात आदि। यहां पर
दुनिया में बढ़ते आतंकवाद के बारे में कुछ चर्चा है। इस पाठ में आगे
आतंकवाद के खतरों पर चर्चा है, जिसमें वल्र्ड ट्रेड सेंटर आदि हमलों का
ज़िक्र है।
• इसी तरह कक्षा 12 की पुस्तकों में जहां जहां भी आतंकवाद
शब्द ढूंढने से मिलता है उस पृष्ठ की फोटोकापी उपलब्ध् करा दी गई है।
इसमें भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर युद्ध और वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले
और भारत पाकिस्तान तनाव का ज़िक्र है।
• इसी पुस्तक के कुछ अन्य पृष्ठों
की फोटोकॉपी भी उपलब्ध् कराई गई है जिसमें मुख्यत: संयुक्त राष्ट्र के
शांति अभियानों और आतंकवाद को एक राजनैतिक हिंसा के रूप में परिभाषित किया
गया है।
• हैरानी की बात है कि पुस्तक में जितनी चर्चा अमेरिका, विश्व
सुरक्षा आदि पर खतरे को लेकर है उसके मुकाबले भारतीय संदर्भ में आतंकवाद
को हल्के ढंग से पेश किया गया है। आतंकवाद के मूल को समझने, इसके बढ़ने के
कारणों और भारतीय परिप्रेक्ष्य में संभावित समाधनों का तो ज़िक्र भी नहीं
है।
• 12 वीं की पुस्तक में ही आगे सुरक्षा नीतियों की समीक्षा की गई है। इसकी भी फोटोकॉपी उपलब्ध् कराई गई है।
गौरतलब है कि यह सब पफोटोकॉपी यह कहते हुए दी गई हैं कि आने वाली पीढ़ियों को
आतंकवाद के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षा व्यवस्था क्या पढ़ा रही
है?कितनी ज़िम्मेदारी निभा रही है? सूचना के अधिकार के तहत आवेदन में यही जानकारी मांगी गई थी।

भ्रष्टाचार
इसी प्रकार सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगते हुए एक आवेदन यह भी डाला गया था कि आने वाली
पीढ़ियों को भ्रष्टाचार के प्रति जागरूक करने के लिए शिक्षा व्यवस्था क्या
ज़िम्मेदारी निभा रही है? पाठ्यक्रम में क्या सामग्री इस आशय के साथ जोड़ी
गई है। यह आवेदन 16 अक्टूबर को डाला गया था। इसका जवाब भी इध्र-उध्र घूमते
हुए सूचना आयोग के नोटिस के बाद एनसीईआरटी से प्राप्त हुआ।
यहां भी यही कहानी है। कक्षा 9 से कक्षा 12 तक की पुस्तकों के कुछ अध्यायों की सूची। उसके बाद उनकी फोटोकॉपी।
फोटोकॉपी सेट के पहले ही पन्ने पर एक जगह `करप्ट´ शब्द आया है। पूरा वाक्य
इस प्रकार है, `.......इन जांचों से पता चला है कि पिनोशे (चिली का पूर्व
तानाशाह) न सिपर्फ क्रूर था बल्कि भ्रष्ट भी था..... प्रदान की गई
फोटोकापी में करप्ट (भ्रष्ट) शब्द को रेखांकित किया गया है। (चिली में
लोकतंत्र पर एक पैराग्राफ में आया एक वाक्य `पिनोशे एक भ्रष्ट शासक था।´
सिर्फ यह वाक्य किस प्रकार बच्चों को भ्रष्टाचार के प्रति संवेदनशील बनाता
है और कैसे इसे पढ़कर बच्चों के मन में यह भावना जागेगी कि भ्रष्टाचार एक
गलत बात है और उसे बड़ा होकर भ्रष्ट नहीं बनना चाहिए.... क्या एनसीईआरटी को
इस बात का जवाब नहीं देना चाहिए?
• इसी के अगले पृष्ठ पर पोलैंड के लोकतंत्र पर चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार शब्द आया है। (सरकार में बड़े
पैमाने पर भ्रष्टाचार और कुप्रबंध्न ने शासकों के लिए मुश्किल खड़ी कर दी)
यहां भी पूरे पृष्ठ पर इस एक अकेले शब्द को हरे पेन से रेखांकित कर दिया
है।
• इसके अगले पन्ने पर लोकतंत्र पर एक क्लास में चर्चा के दौरान एक
चार जगह भ्रष्टाचार शब्द आया है। उसे भी उपरोक्त प्रकार से रेखांकित किया
गया है।
• इसी तरह अगले पन्ने पर लोकतंत्र पर सवाल उठाते हुए पिफर
एकबार भ्रष्टाचार शब्द आता है जिसे रेखांकित कर उसकी फोटोकापी प्रदान कराई
गई है।
• इसी तरह एक पृष्ठ पर वाक्य आया है कि सेना देश का सबसे
अनुशासित और भ्रष्टाचार मुक्त विभाग है। इस पृष्ठ को भी उपरोक्त सवालों के
जवाब में सूचना देते हुए उपलब्ध् करवाया गया है।
• अगले पन्ने पर नागरिक समूह बनाने पर चर्चा है जिसमें एक वाक्य आता है कि नागरिक, प्रदूषण
और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर अभियान चलाने के लिए भी समूह बना सकते हैं।
यहां सवाल सिर्फ सूचना के अधिकार
का नहीं है। सूचना तो प्रदान कर ही दी गई है, भले ही अपील और आयोग के
नोटिस के बाद मिली हो। सवाल है कि देश को चलाने के लिए अरबों रुपए खर्च कर
चल रही शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार कल के नागरिक तैयार कर रही है।
पिनोशे एक भ्रष्ट आदमी था, क्या यह कहने से हम बच्चों को भ्रष्टाचार के खतरे के
प्रति संवेदनशील बनाते हुए यह उम्मीद कर सकते हैं कि इसे पढ़ने वाला बच्चा
जब नागरिक बनकर आगे आएगा तो वह भ्रष्ट नहीं बनेगा, रिश्वत नहीं लेगा देगा।
जिस देश की व्यवस्था को भ्रष्टाचार का घुन लगा हो उस देश की शिक्षा
व्यवस्था यह कहकर अपनी पीठ ठोक रही है कि हमारे पाठ्यक्रम में नैतिकता के
महत्व पर ज़रूर दिया गया है। वह भी उपरोक्त अध्यायों के दम पर! यह कैसा
मज़ाक है?
यही स्थिति आतंकवाद के मामले में है। देश पिछले कई दशक से
आतंकवाद से जूझ रहा है। हमारा रक्षा-सुरक्षा बजट बढ़ रहा है। हम हथियारों
के बड़े खरीददार बनते जा रहे हैं। सुरक्षा के कड़े से कड़े
नियम बना रहे हैं लेकिन फ़िर भी यह समस्या बढ़ी ही है। अभी तो नामी गिरामी
शिक्षा संस्थानों से निकले युवाओं को भी आतंकवाद ने अपनी गिरफ्रत में ले
लिया है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था में लगे लोग उपरोक्त पाठ्यक्रम के बल पर
अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं।
देश को आगे ले जाने वाल शिक्षा कैसी
होगी इसकी ज़िम्मेदारी हमने शिक्षा व्यवस्था को दी है। और खुद एनसीईआरटी के
जवाब से तथा उसके जवाब से उभरे तथ्यों से ये सवाल उभरता है कि क्या यह
ज़िम्मेदारी ठीक से निभाई जा रही है?

What is RTI?

The concept of a citizen's Right To Information begins with the acknowledgment that citizens ought to be the true masters of a democracy. In India, since the government is of, for, and by the people, and is funded almost entirely by the taxes paid by the citizens, it is easy to see how the citizens are the root of the system of governance.

However, these supposed "masters" of the country often had little or no access to essential information about the governance of their own country! It was to remedy this fundamental problem that the Right To Information Act was passed by the parliament.

The Right To Information is a fundamental right in every sense of the word because it is absolutely essential to the healthy functioning of a modern democracy since an uninformed citizen cannot possibly be expected to be a good citizen. Moreover, though, the Right To Information Act opens the doors to exposing all sorts of government inefficiency, malaise, corruption, and inadequacy. While the average citizen often complains about the present state of affairs of the country, he/she also usually lacks the understanding to make things right. That is how the Right To Information Act serves to empower even the weakest citizen to participate in their own governance.